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दो दानी एक ज्ञानी

जो कहूँगा सच कहूँगा सच के सिवाय कुछ नहीं कहूँगा। 😁😁😜😜
जी हाँ, दानी 2 तरह के होते हैं।

1. प्रथम श्रेणी के दानी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो दान देने के बाद उसका कोई हिसाब-किताब नहीं रखते। (हालाँकि सरकारें हमेशा से ही इस मत के विरोध में रहती हैं।😁)
ऐसे दानी एक बार धन या सम्पदा दान करने के बाद वापस नहीं लेते। ऐसे लोग अपना नाम लिखवाना भी पसन्द नहीं करते। किसी अन्य से अपने दान की कभी चर्चा भी नहीं करते। इनसे दान लेने वाला अगर कलाकार हो तो कितना भी दान ले सकता है। इनमें से कई निस्पृह भाव से दान देते हैं तो कई धार्मिक मतान्ध भी होते हैं। ऐसे दानियों में कई बिना भेदभाव के किसी को भी दान दे देते हैं जबकि कई लोग कुछ धर्म विशेष या संगठन विशेष को ही दान देते हैं। कई बार इनका दान सृजन लाता है तो कई बार विध्वंस को भी न्यौता देता है, उसका भी कारक बनता है।

उदाहरणत: विद्यालयों, चिकित्सालयों, धार्मिक स्थलों, व सामाजिक संगठनों को दिया गया दान सकारात्मक बदलाव ला सकता है। लेकिन आतंकी संगठनों को वित्त पोषण सर्वदा विध्वंस ही लेकर आयेगा। नरसंहार व अराजकता का ही माध्यम बनेगा।

आपको एक रोचक कथा बताता हूँ। एक बार एक श्रेष्ठि ने गौतम बुद्ध का प्रवचन श्रावस्ती में करवाने की सोची। इसके लिये उसे सर्वोत्तम स्थान एक सुन्दर उद्यान लगा। वह उद्यान वहाँ के राजकुमार का था। श्रेष्ठि ने राजकुमार से बात की व उद्यान को खरीदने का प्रस्ताव रखा। राजकुमार ने उद्यान को बेचने से मना कर दिया। कारण यह था कि राजकुमार के पास भी अथाह धन सम्पदा थी। उसे कोई लालच नहीं था। श्रेष्ठि ने जमीन के बराबर स्वर्ण मुद्रा देने का भी प्रस्ताव रखा। कहते हैं कि उस श्रेष्ठि ने अपने आदमियों को उस जमीन को स्वर्ण मुद्राओं से आच्छादित करने का आदेश दिया। पूरे नगर में बैलगाड़ियों की श्रृंखला सी बन गई। अंततोगत्वा उद्यान की पूरी जमीन स्वर्ण मुद्राओं से ढक दी गई।

ऐसा करतब देखकर राजकुमार भी अचम्भित रह गया। उससे रहा न गया। राजकुमार ने श्रेष्ठि से पूछ ही लिया, आप आखिर इसी जमीन को खरीदने की जिद क्यों लगाये हुये हैं ? '' श्रेष्ठि ने बताया कि उसे उद्यान में गौतम बुद्ध के प्रवचन करवाने हैं। यह सुनकर राजकुमार ने कहा कि आपको यह बात पहले बतानी चाहिये थी। बात यहाँ तक पहुँचती ही नहीं। राजकुमार ने उद्यान की जमीन श्रेष्ठि को निःशुल्क देने की घोषणा कर दी। अब दोनों में एक नया विवाद छिड़ गया। श्रेष्ठि ने स्वर्ण मुद्राएँ वापस लेने से मना कर दिया जबकि राजकुमार ने स्वीकार करने से मना कर दिया। अंततः तय हुआ कि उक्त धनराशि बुद्ध को समर्पित कर दी जायेगी। इस कहानी में देखा जाये तो दोनों पक्ष ही धन के लोभी नहीं थे व परमार्थ के लिये दोनों ही उद्यत थे।

इसका विध्वंसक पक्ष भी देखते चलें। जिन्होंने भी ओसामा बिन लादेन को धन उपलब्ध करवाया सब गुप्त दानी ही थे लेकिन उद्देश्य कल्याणकारी तो बिल्कुल ही नहीं था। इसका दुष्प्रभाव सम्पूर्ण विश्व ने भुगता।

2. दूसरी श्रेणी के दानी ऐसे लोग होते हैं जो अपने दान का पूरा हिसाब रखते हैं कि कहीं दान का दुरूपयोग तो नहीं हो रहा है। काम की गुणवत्ता का भी इसमें ध्यान रखा जाता है। ऐसे दानी कई बार दान में दी गई वस्तुओं व दान की राशि द्वारा निर्मित वस्तुओं पर अपना या अपने बुजुर्गों का नाम भी लिखवाते हैं। कई नहीं भी लिखवाते हैं। इनमें से कुछ अहंकारी किस्म के भी होते हैं। अपनी बड़ाई स्वयं ही करते रहते हैं। ऐसे लोगों को उकसाकर कि आपका विरोधी इतना दान दे रहा है कितना भी दान लिया जा सकता है। करना कुछ भी नहीं एक छोटे से समारोह में इन्हें साफा पहना दीजिये, शॉल ओढा दीजिये, माला पहना दीजिये, एक श्रीफल पकड़ा दीजिये, एक स्मृति चिह्न दे दीजिये व मंच पर इनका थोड़ा गुणगान कर दीजिये आपका दान एकदम पक्का क्योंकि ये इतने में ही फूलकर फतेहपुर हो जायेंगे। ऐसे लोग समाज की जरूरत से दान नहीं देते बल्कि जहाँ इनकी वाहवाही ज्यादा हो वहाँ ज्यादा दान देते हैं या फिर जहाँ इनका मन करे। 

3. अन्तिम चर्चा ज्ञानी की। ध्यान से पढ़िये दानी नहीं ज्ञानी लिखा है। ऐसे लोग तीसरी श्रेणी के हैं या यूँ कहें की अन्य श्रेणी में आते हैं। ये लोग द्विगुणी या यूँ कहें उभयगुणी होते हैं। ये समभाव रूप से दानी व ज्ञानी एकसाथ होते हैं। इन्हें ज्ञानी इसलिये कहा जाता है क्योंकि यह करते कुछ भी नहीं हैं कहीं भी काम चल रहा हो बस लट्ठ रोड़ने आ जाते हैं। इनको दानी इसलिये कह सकते हैं क्योंकि ये अपना कीमती समय उस परियोजना या कार्य में आपके साथ बहस करते हुये बेझिझक लगा देते हैं। ऐसे लोग अपनी निद्रा का भी त्याग कर देते हैं व चैन से न आप स्वयं बैठते हैं न आपको बैठने देंगे जब तक कि इनकी मनोकामना पूर्ण न हो जाये। ये प्राणी धरती पर बहुतायत में पाये जाते हैं। ऐसे लोग सर्वज्ञानी होते हैं। इनसे किसी भी विषय पर ज्ञान लिया जा सकता है। इनका खाना भी तब तक हजम नहीं होता जब तक ये कुछ न कुछ अपने मन की न कर लें। ये आपको बाहर दुकान पर, चौक में, खेत में, सत्संग में, श्मशानघाट में सब जगह समान भाव से पंचायत करते मिलेंगे। इनके खुफिया सूचना सूत्र कानून के हाथों व हाथी या ब्लू व्हेल मछली के गुणसूत्रों से भी लम्बे होते हैं। इनसे आप तर्क में कभी भी नहीं जीत सकते। 
तुलसीदास ने इन्हीं के लिये लिखा है - : 

तुलसी इस संसार में भाँति-भाँति के लोग।
सबसे हिलमिल चालिये नदी-नाव संयोग।।

लेख कैसा लगा लिखना अगर अच्छा है तो अपने परिचितों को अग्रेषित करना। अगर त्रुटि हो तो ध्यानाकर्षित करना। सधन्यवाद।
आपका राजेश कुमार जाँगिड़ 

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