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राजा विद्रोही सरकार सेना व शत्रु - 1971 का युद्ध

यह कहानी आपसी विश्वास, मानवीय ह्रदय परिवर्तन व मातृभूमि के लिये अपने आपसी मतभेद भूलकर एकजुट होकर शत्रु को पराजित करने की है। जैसा आप फिल्मों में भी देखते हैं। इस कहानी के मुख्य पात्र एक राजा व एक विद्रोही हैं। लेखक ने बड़े ही सजीवता पूर्ण तरीके घटना का चित्रण किया है। आप स्वयं को एक किरदार की तरह कहानी में उपस्थित पायेंगे। 
एक राजा था एक विद्रोही था। 
दोनों ने बंदूक उठाई – 
एक ने सरकार की बंदूक। एक ने विद्रोह की बंदूक।।एक की छाती पर सेना के चमकीले पदक सजते थे।। दूसरे की छाती पर डकैत के कारतूस।। 

युद्ध भी दोनों ने साथ-साथ लड़ा था। लेकिन किसके लिए ? 
देश के लिए अपनी मिट्टी के लिये, अपने लोगों के लिए

मैंने अपने बुजुर्गों से सुना है कि "म्हारा दरबार राजी सूं सेना में गया और एक रिपयो तनखा लेता"

इस कहानी के पहले किरदार हैं जयपुर के महाराजा ब्रिगेडियर भवानी सिंह राजावत जो आजादी के बाद सवाई मान सिंह द्वितीय के उत्तराधिकारी हुए। दूसरा किरदार है, उस दौर का खूँखार डकैत बलवंत सिंह बाखासर।

स्वतंत्रता के बाद जब रियासतों और ठिकानों का विलय हुआ तो सरकार से विद्रोह कर सैकड़ों राजपूत विद्रोही हो गए। सरकार के विरूद्व बंदूक उठा ली। जैसलमेर के पोकरण का सांकड़ा गाँव तो एक वक्त विद्रोहियों का गढ़ हुआ करता था। उन्ही में से एक विद्रोही थे बलवंत सिंह बाखासर।

विद्रोही बाखासर का भय इतना था कि धोरों की रेत भी उड़ने से पहले उनकी गोली को नमन करती थी।
राजस्थान सहित गुजरात की पुलिस उनके पीछे लगी रहती थी। बाखासर सरकारी तंत्र की नजर में जरूर डकैत थे, लेकिन स्थानीय लोग उन्हें रॉबिनहुड ही मानते थे। बाखासर का ननिहाल पाकिस्तान के सीमावर्ती गाँव छोछरो के सोढा राजपूतों में और ससुराल गुजरात के जडेजा राजपूतों में थी।

जब राजस्थान की पुलिस उन्हें परेशान करती तो वह अपनी ससुराल गुजरात निकल जाते और जब दोनों स्टेट की पुलिस पीछे लगती तो सीमा पार कर उनका घोड़ा अपने ननिहाल छोछरो पहुँच जाता। इतनी किसी की बिसात नहीं हुआ करती थी कि उन्हें सीमा पर कोई रोक सके। पाकिस्तान की सेना को भी मालूम होता था कि बलवंत सिंह अपने ननिहाल आ गया है। पाकिस्तान में उनकी बढ़िया खातिरदारी होती और स्थानीय लोग उन्हें पहचानते भी थे। 

तभी इकहत्तर का युद्ध छिड़ चुका था व पूरी पश्चिमी कमान का नेतृत्व कर रहे थे जयपुर के महाराजा ब्रिगेडियर भवानी सिंह राजावत। इकहत्तर के युद्ध की सबसे भीषण लड़ाई जैसलमेर-बाड़मेर सीमा पर लड़ी गई थी।

जयपुर महाराजा को विशेष परिस्थितियाँ सम्भालने के लिए कमान दी गई। महाराजा ने रेत के धोरों में जिस साहस और बहादुरी का परिचय दिया उसकी वजह भारत हर मोर्चे पर जंग में भारी पड़ रहा था!

बीच युद्ध में ही महाराज बाखासर रण में पहुँच गए जहाँ सामने पाकिस्तान की टैंक रेजिमेंट तैनात थी। ऐसी कोई  युक्ति भी नहीं सूझ रही थी कि उस टैंक रेजिमेंट का मुकाबला किया जा सके। बाखासर के गहरे रेत के धोरों में आगे का रास्ता ढूँढ़ना भी दुष्कर था। सेना के जवान वहाँ के रास्तों से परिचित नही थे। महाराज के सामने एक बड़ी मुसीबत आ गई। तमाम तरह के प्रयास किये गए लेकिन कोई भी उपाय नही सूझा अर्थात कोई भी प्रयास कारगर साबित नहीं हुआ। 

जब किसी भी तरह से बात नहीं बनी तो महाराज ने अचानक ही बलवंत सिंह बाखासर को याद किया।
महाराज यह बात अच्छे से जानते थे कि बलवंत सिंह इन रेतीले रास्तों का जितना अभ्यस्त है उतना शायद ही कोई हो। यह विचित्र बात ही थी कि एक समृद्धशाली रियासत का राजा जो कि एक पुरुस्कृत योद्धा था मदद के लिए एक बागी को पुकार रहा है। 

सरकारी तंत्र और सरकार पर तो बलवंत सिंह को तनिक भी भरोसा नही था लेकिन उसे यह समझने में देर नहीं लगी कि एक राजपूत ने दूसरे राजपूत को पुकारा है। धोरों की धरती ने पुकारा है और बलवंत बिना वक्त गँवाए दौड़ा चला आया। जो पाकिस्तान आज तक बलवंत सिंह का ननिहाल और शरणस्थली था आज उसी बलवंत सिंह ने उसे रौंदने का संकल्प ले लिया!

मुझे नही मालूम उस वक्त महाराज ने सरकार और सेना से क्या बात की लेकिन उन्होंने बलवंत सिंह को वचन दे दिया कि युद्ध जीतने के बाद तुम्हारे सभी अपराध क्षमा कर दिए जायेंगे और तुम्हे मुँह माँगे हथियारों के लाइसेंस भी दे दिए जायेंगे। यह कहानी बहादुरी और साहस से अधिक भरोसे की नींव पर टिकी है। यहाँ सरकार व सेना
 केवल मूकदर्शक हैं। भरोसा और विश्वास है एक राजपूत को दूसरे राजपूत पर। परम्परा है मातृभूमि के लिए लड़ने की। फिर क्या तो राजा और क्या ही बागी। 

महाराज ने अपनी पूरी बटालियन बलवंत सिंह को सौंप दी और शत्रु को रौंद डालने का आदेश दे दिया। क्या ही इतिहास लिखा गया उस दिन, बाखासर के रण में कल तक जो बागी था आज वह एक ब्रिगेडियर बनकर सेना का नेतृत्व कर रहा है। ब्रिगेडियर महज सैनिक बनकर उस बागी का अनुसरण कर रहा है। 

बलवंत सिंह के नेतृत्व में सेना ने कूच किया। उनके साथ सेना की चार जोंगा जीप भी थीं। जिसके सामने थी पाकिस्तान की टैंक रेजिमेंट। बलवंत सिंह ने टैंक के गोलों से निपटने के लिए जोंगा जीप के साइलेंसर खोलकर सीमा पर ऐसा कोलाहल अर्थात शोर पैदा किया कि पाकिस्तानी सेना को भ्रम हो गया कि भारत की टैंक रेजिमेंट भी सीमा पर पहुँच चुकी है। बलवंत सिंह का यह रण चातुर्य देखकर महाराज भी चकित रह गए। एक विद्रोही के बताए रास्ते पर पलटन ने पाक पर चढ़ाई की। अंततः शत्रुओं को रौंदते हुए पाकिस्तान के छोछरो तक पहुँच गई। छोछरो का रण जीत लिया गया।
महाराजा ब्रिगेडियर भवानी सिंह राजावत की बहादुरी को पूरे देश से प्रशंसा मिली।

युद्ध जीतकर जब महाराज वापस लौटे तो उन्हें महावीर चक्र से नवाजा गया और छोछरो की जंग के हीरो बलवंत सिंह बाखासर के सभी केस वापस ले लिए गए। साथ ही उन्हें दो बंदूक रखने के सरकारी लाइसेंस दिए गए।
सरकार ने तो बलवंत सिंह को कोई खास सम्मान नहीं दिया लेकिन जयपुर महाराज अपना वचन नहीं भूले और उन्होंने बलवंत सिंह को सम्मान देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

मारवाड़ में आज भी बलवंत सिंह के लिए महिलाएँ गीत गाती है कि "बलवंत थारी बंदूक सूं, थिरके पाकिस्तान 

लेखक :- बजरंग सिंह धमोरा अध्यापक (सेवानिवृत्त वायुसैनिक) 
लेख में मैंने अपने तरीके से कुछ शाब्दिक व वर्तनी सम्बन्धित परिवर्तन किये हैं। आशा है कि इनका यह लेख आपको पसन्द आयेगा। अगर आपके पास भी ऐसा कुछ है तो मेर नम्बर 00918890947815 पर भेज सकते हैं। 
भेजा गया :-  महादेव सिंह शेखावत यालसर (बजरंग सिंह के साढू)

लेख अगर पसन्द आये तो अग्रेषित कीजिये। त्रुटि महसूस हो तो ध्यानाकर्षित कीजिये। सधन्यवाद। 

आपका राजेश कुमार जाँगिड़ 

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